Thursday, February 28, 2013


मेरी जि़दगी तुझमें नहीं तुझसे है




मेरी जि़दगी तुझमें नहीं तुझसे है
ये लम्हा ही नहीं इसका हर हिस्सा गुंथा है तेरी बातों से
तेरे जज्बातों से, ख्यालातों से,मुख्तलिफ अंदाज़े ब्यान से
और तेरी हंसी से।
लम्हा लम्हा पिरो लेता हूं यादों के झरोखों में
और फिर चाषनी सी तेरी बातों को चख कर छोड़ देता हूं
कुछ समय तक छूता भी नहीं छेड़ता भी नहीं कुछ कहता भी नहीं
बस देखता रहता हं कि तेरे बिना बेस्वाद सा क्या स्वाद है
अब जि़दगी को पूर्ण कहूं या सम्पूर्ण कहूं
या फिर किसी भी नाम की तह न चढने दूं
और बस जीने दूं
खुद को तेरे-मेरे या हमारे इस लम्हे में।
ये लम्हा हमेषा रहेगा, हम रहें ना रहें
मुस्कुराता, इठलाता और किसी दूसरे की हंसी को सहारा देता।


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