Wednesday, January 29, 2014

शायद मैं वैसा नहीं था.



आज मैं बाहर का दायरा ख़त्म कर भीतर गया.
घना अंधेरा, कुछ उजाला सा था
और मैं दोनो में ही था
अंधेरा डराता था
उजाला भाता था
मैं बहका, महका और खिलखिलाया
पर क्या यही अंत था
नहीं, अभी अभी तो दृश्य में बहुत कुछ समाया था
अंजान रास्ता था.
पर मैं आगे बड़ा
डरा, रोया कि कहीं खो ना जाउ ?.
और क्या पता अनजाने रास्तों को अपना बनाउ ? .
शरीर सुगंधित था, मन आनन्दित था.
अंत तो नहीं पर रास्ते के सुखद मोड पेर मैं था.
जब पीछे देखा तो वहां भी यही मोड़ था.
पर शायद मैं ही वैसा नहीं था.

जैसा आज हूं.

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